शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को.......

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
--------------------------------------------------------------------अदम गोंडवी

25 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

वाकई बेहद मर्मस्पर्शी रचना ।
देर से पढ पाई इसका अफ़सोस है ।

ज्योति सिंह ने कहा…

bahut bahut aur bahut hi sundar rachna ,uttam chitran haalat ke .

केवल राम ने कहा…

भाई साहब आज आपके ब्लॉग पर आना हुआ ..निश्चित रूप से आप अच्छा लिखते हैं लेकिन मैंने देखा कि निरंतरता का आभाव है ...आप निरंतरता बनाओ ..और ब्लॉग जगत में छा जाओ ...यही शुभकामना है ...आशा है आपकी शीघ्र ही नयी रचना पढने को मिलेगी ....शुभकामनाओं सहित ..केवल राम

केवल राम ने कहा…

एक प्रार्थना और :----
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो NO करें ..सेव करें ..बस हो गया .

Mithilesh dubey ने कहा…

दिल में उतर गयी आपकी रचना

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

आपके द्वारा प्रस्तुत अदम गोंडवी की कविता मन को छू गई....

आपको बहुत-बहुत बधाई !

शिवा ने कहा…

आप का लेख बहुत सुंदर लगा, धन्यवाद
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ आकर अच्छा लगा
कभी हमारे ब्लॉग//shiva12877.blogspot.com पर भी आए

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सत्‍य भाई मैं तो अदम साहब का फैन हूँ। उनकी इस शानदार रचना को पढवाने का शुक्रिया।

---------
शिकार: कहानी और संभावनाएं।
ज्‍योतिर्विज्ञान: दिल बहलाने का विज्ञान।

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) ने कहा…

bahut hi marmik rachna hai, sachchai hamesha dil ko chhooti hai...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

प्रिय सुमीत सत्य जी
सादर सस्नेहाभिवादन !

अदम गोंडवी जी की शानदार जानदार रचना पढ़ने का अवसर देने के लिए आपका आभार !
एक विनम्र सुझाव है : किसी और रचनाकार की रचना पोस्ट करें तब रचनाकार का संक्षिप्त परिचय अवश्य दिया करें , नाम रचना के नीचे लिख देना पर्याप्त नहीं ।
आप देख ही रहे हैं लिखा होने के उपरांत भी पाठक ग़ौर ही नहीं कर रहे … ।
डॉ.शरद सिंह जी ने गोंडवीजी का नाम लिया , फिर ज़ाकिर जी ने ।

रचनाकार को मात्र प्रशंसा ही तो मिलती है , उसका यह हक़ भी किसी भी वजह से किसी और के हिस्से में चला जाए तो मुझे तो बहुत तकलीफ़ होती है भाई ! आशा है, बात को सकारात्मक रूप में ही लेंगे ।
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

- राजेन्द्र स्वर्णकार

Unknown ने कहा…

मन को बेंध कर रख दिया इस रचना ने . .

जन्म का पाप(जाति)मिटाया नहीं जा सकता ये हमारी सड़ चुकी व्यवस्था परनिश्चित ही एक एक प्रश्नचिन्ह हे???
इस सामंतवादी मानसिकता में तथाकथित निमं जातियां और स्त्री दोनों ही व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं ..उपाय एक ही हे .."हक के लिए एक होना" ..जो की हो नहीं पाता ..

निम्न जातियों का संघर्ष चरम बौद्धिकता की आड़ में भटक गया हे और स्त्रीयों को ये बात अभी सीखनी बाकी हे की अपने अधिकार और सम्मान की लड़ाई उन्हें खुद ही लड़नी होगी ..खुद को एकता के सूत्र में पिरोना होगा ....तब शायद ये व्यवस्था डह पाए . .

सुमित जी आप समाज की इस नंगी तस्वीर को कविता के माध्यम से सटीक अभिव्यक्ति देने के लिए निसंदेह प्रशंसा के पात्र हे ...मन को छू लिया आपकी इस मरमस्पर्शी अभिव्यक्ति ने . .

सस्नेह आभार
चंद्रकांता

Patali-The-Village ने कहा…

बेहद मर्मस्पर्शी रचना| धन्यवाद|

Vijuy Ronjan ने कहा…

kya kavita hai...aag laga diya isne hamare bheetar...

Patali-The-Village ने कहा…

होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

सुमित सत्य जी ,
आज आपके ब्लाग पर आई.बहुत अच्छा लगा .
आती रहूँगी .

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अदम गोंडवी जी रचना ने ज़िंदगी के ताप से झकझोर दिया ...ऐसा लग रहा थ कि कोई दृश्य चल रहा है आँखों के सामने ...

सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार

वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें

Coral ने कहा…

सत्य है .....

smshindi By Sonu ने कहा…

सुन्दर रचना

amrendra "amar" ने कहा…

बहुत सुंदर
वाकई बेहद मर्मस्पर्शी रचना ।
आपको बहुत-बहुत बधाई !

वैज्ञानिक प्रार्थना ने कहा…

बहुत सुन्दर और गहरी सोच! साधुवाद!

"कुछ लोग असाध्य समझी जाने वाली बीमारी से भी बच जाते हैं और इसके बाद वे लम्बा और सुखी जीवन जीते हैं, जबकि अन्य अनेक लोग साधारण सी समझी जाने वाली बीमारियों से भी नहीं लड़ पाते और असमय प्राण त्यागकर अपने परिवार को मझधार में छोड़ जाते हैं! आखिर ऐसा क्यों?"

यदि आप इस प्रकार के सवालों के उत्तर जानने में रूचि रखते हैं तो कृपया "वैज्ञानिक प्रार्थना" ब्लॉग पर आपका स्वागत है?

kanu..... ने कहा…

bahut hi sundar rachana.dukh hai is baat ka ki aapke blog tak ab pahunch paai....dhanyawad aapka ki aapne meri rachna par comment kiya to aapke blog tak pahunch gai.

प्रेम सरोवर ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन रचना । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

keshav ने कहा…

बेहतरीन.........लजाबाव.....भूख और यातना से त्रस्त जिंदगी का आलम...पूरी शिद्दत के साथ पूरी मानवीयता के साथ पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया है.......उत्तम रचना

Madan Mohan Saxena ने कहा…

वाह.सुन्दर प्रभावशाली ,भावपूर्ण ,बहुत बहुत बधाई.
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