सोमवार, 17 जून 2013

मीरगंज

जब पूरा शहर रात के आगोश में
समां जाता है...
तब....
शहर के भीतर बसा दूसरा 'शहर'
जगमगाता है......

लेकिन................
रौशनी में टिमटिमाता ये 'शहर'
सिर्फ दूर से ही
खूबसूरत नजर आता है......
पास जाने पर
दहकता है, अंगार बरसाता है....

गलता हुआ, सड़ता हुआ सा
बिद्बिदाता, सड़ांध फैलाता
जिन्दा लाशों का ये 'शहर'
मीरगंज कहलाता है.............

मीरगंज.....
जिसे कभी मीर साहब ने बसाया था
अल्लाह की इबादत के लिए.........

आज भी...
यहाँ होती है इबादत...
बस....
अल्लाह की जगह
नंगे जिस्मों ने ले ली है............

क्योंकि.
ये वेश्याओं, वेश्यालयों और
दलालों का 'शहर' है...............